इज़राइल न्यायपालिका सुधार

न्यायपालिका लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन लोकतांत्रिक देशों में हाल ही में न्यायपालिका को कमजोर करने या उस पर सत्ताधारी पार्टी का नियंत्रण करने का एक चलन सा शुरू हो गया है।
इज़राइल न्यायपालिका सुधार
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न्यायपालिका लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह लोकतंत्र में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके बिना लोकतंत्र की अवधारणा ही नहीं की जा सकती। लेकिन लोकतांत्रिक देशों में हाल ही में न्यायपालिका को कमजोर करने या उस पर सत्ताधारी पार्टी का नियंत्रण करने का एक चलन सा शुरू हो गया है।यह चाहे हंगरी सरकार द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करने, ट्रम्प प्रशासन द्वारा अमेरिकी न्यायपालिका में हस्तक्षेप करने, मोदी सरकार द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति में हस्तक्षेप करने या पोलैंड और तुर्की जैसे देशों में न्यायपालिका को कमजोर करने की कोशिश हो। इन देशों के अलावा, पिछले कुछ समय में न्यायपालिका में हस्तक्षेप कर लोकतंत्र को खराब करने की कोशिश की गई है।

हाल ही में इजरायल इसी दिशा में जा रहा है। प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार पिछले कुछ दिनों से न्यायपालिका में सुधार की कोशिश कर रही है। इजरायली सरकार द्वारा किए गए बदलावों से वहां के सुप्रीम कोर्ट का अधिकार लगभग समाप्त हो जाएगा, जिससे इजरायल केवल नाममात्र के लोकतंत्र के रूप में बच जाएगा। पिछले कुछ दिनों से इजरायली जनता ने नेतन्याहू की सरकार के इस न्यायिक सुधार का विरोध किया है। ये सुधार इज़राइल के कानून मंत्री यारिव लेनिन दुआवारा नेसेट (इज़राइल की संसद) में प्रस्तुत किया गया |

 बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार न्यायपालिका में क्या परिवर्तन लाना चाहती है?

वास्तव में, प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की नवीनतम सरकार न्यायपालिका को पुनःस्थापित करने की कोशिश कर रही है। इस रिफॉर्म के दौरान उनकी सरकार न्यायपालिका में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव करना चाहती है:

पहला बदलाव, आसान शब्दों में, इजरायल के मूल कानूनों  (Basic Laws) से संबंधित है, जो "देश के संविधान के रूप में कार्य करते हैं"। दरअसल, इजरायल में कोई लिखित संविधान नहीं है और सभी कानून 14  “बेसिक लॉज” को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। और अगर बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार इन मूल कानूनों को बदलने में सफल होती है, तो उसे आगे किसी भी तरह का बदलाव करने में कोई बाधा नहीं होगी।

इस कड़ी में, वह सुप्रीम कोर्ट के किसी भी कानून की वैधता की समीक्षा करने की क्षमता को खत्म करने वाला कानून लाने की ओर बढ़ता है। दरअसल, वहां के सुप्रीम कोर्ट को संसद द्वारा पारित किसी भी कानून की समीक्षा करने और उसकी वैधता को जांचने का अधिकार है। आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं, जैसे हमारे देश के यहां के न्यायालयों को कानूनों की वैधता या 'तर्कसंगतता' की समीक्षा करने का अधिकार है। वहां के सुप्रीम कोर्ट में भी इसी तरह की शक्ति है। हाल की सरकार इजरायल के मूल कानूनों में बदलाव करके सर्वोच्च न्यायालय से यह अधिकार लेना चाहती है।

न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सत्तारूढ़ दलों का एकाधिकार स्थापित करना भी एक बदलाव है।  इजरायल के सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति वर्तमान में नौ सदस्यीय कमेटी करती है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, वकील, सांसद और मंत्री शामिल हैं। बिन्यामिन नेतन्याहू की सरकार ने इस समिति में जो बदलाव की मांग की है, उससे इस समिति का ढांचा पूरी तरह से बदल जाएगा। अब इस कमेटी पर सत्तारूढ़ पार्टी का पूरा नियंत्रण होगा, जो पहले न्यायाधीशों और कानूनविदों के अधीन था। भारत के कॉलेजियम प्रणाली की तुलना करके आप इसे समझ सकते हैं। यहां के सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम कमेटी द्वारा की जाती है, जिस पर सत्तारूढ़ दल का कोई अधिकार नहीं है। हाल ही में वहाँ एक ऐसी ही कमेटी थी, और नेतन्याहू सरकार ने कानून में बदलाव लाकर इस कमेटी पर अपनी सरकार का नियंत्रण जमाना चाहता है, ताकि वह न्यायाधीशों की नियुक्ति करने में स्वतंत्र हो सके।

इसके अलावा, इजरायली सरकार ने सदन में लाया गया सबसे महत्वपूर्ण और विवादास्पद विधेयक है जिस्मे सुप्रीम कोर्ट के किसी भी निर्णय को पलटने का अधिकार संसद को देता है। सरकार ने अब साधारण बहुमत वोट के साथ न्यायालय के किसी भी फैसले को पलटने का प्रस्ताव दिया है। हाल ही में प्रस्तावित विधेयक में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को केवल तभी रद्द कर सकती है जब सुप्रीम कोर्ट के सभी 15 न्यायाधीश (या, एक अलग रिपोर्ट के अनुसार, कम से कम 12 न्यायाधीश) की सहमति होगी। सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारों और स्वतंत्रता पर असंवैधानिक हमला करते हुए, बिन्यामिन नेतन्याहू सरकार का “ओवरराइड क्लॉज़” सबसे विवादास्पद प्रस्ताव है।

हाल ही में इजरायल में हुए सबसे बड़े आंदोलन में से एक, प्रस्तावित कानून के खिलाफ हो रहा है।

 

सरकार के इस प्रस्तावित कानून का विरोध इजरायल के राष्ट्रपति से आम जनता तक है। लाखों इजरायलियों ने न्यायपालिका द्वारा प्रस्तावित इस रिफॉर्म का विरोध किया है। इस बिल के खिलाफ पिछले कुछ दिनों से इजरायल के कई बड़े शहरों, राजधानी जेरूसलम और कनेसेट (संसद) के बाहर प्रदर्शन हो रहे हैं। यह आंदोलन इजरायल के इतिहास में सबसे बड़े प्रदर्शनों में से एक है। सत्तारूढ़ पार्टी के इस प्रस्तावित कानून का विरोध कर रहे हैं, जिसमें लेफ्ट विचारधारा से जुड़ी हुई सभी पार्टियां शामिल हैं। नेतन्याहू की सत्ता में वापसी के बाद से इजरायल में हर सप्ताह शनिवार को विरोध प्रदर्शन देखना आम हो गया है। लेकिन पिछले महीने कानून मंत्री यारिव लेविन (Yariv Levin) द्वारा न्यायपालिका में पुनर्विचार लाने के प्रस्ताव के बाद इसमें बहुत वृद्धि हुई है। ध्यान दें कि नेतन्याहू को सत्ता में आए सिर्फ तीन महीने हुए हैं, इसलिए उनकी सरकार के खिलाफ ऐसा व्यवहार करना आने वाले समय में उनके लिए एक चुनौती बनेगा और यह पहले से ही विभाजित इजरायली समाज को और अधिक विभाजित करेगा।

इजरायल के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एस्तेर हयात (Esther Hayut) ने भी इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि यह प्रस्ताव “लोकतंत्र के लिए बड़ा झटका” होगा। इज़रायल के अटॉर्नी जनरल ने भी इस प्रस्तावित कानून का विरोध किया, कहते हुए कि यह सरकार को "एक तरह की अनर्गल शक्ति" देगा और "मानवाधिकारों को कमजोर" करेगा, जो भविष्य में इजरायल के लिए खतरनाक होगा।

   

सरकार न्यायपालिका में हालिया इतना बड़ा बदलाव लाने के पीछे क्या कारण बता रही है?

नेतन्याहू ने पिछले साल दिसंबर में सत्ता में आने से पहले भी अपनी चुनावी रैलियों में न्यायालय में सुधार की बात की थी, और अब सत्ता में आने के बाद वह ऐसा करने की ओर अग्रसर हैं। हाल ही में इजरायल की सत्ता में बैठे लोग वास्तव में देश के इतिहास में सबसे क्रूर दक्षिणपंथी दलों से जुड़े हुए हैं। नेतन्याहू की वर्तमान सत्ताधारी पार्टी में से सबसे बड़ी लिकुड (Likud) है, साथ ही रीलिजस जाइओनिज़्म (Religious Zionism), शास (Shas) और तोरह जुड़ाइस्म (Torah Judaism) जैसी पार्टियां हैं। बीते कुछ सालों से, ये सभी दल इजरायल की न्यायपालिका पर कब्जा करने की कोशिश में लगे हुए हैं, जो धूर दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े हुए हैं।  हाल ही में सत्ता पर काबिज दक्षिणपंथी दलों से जुड़े लोगों और नेताओं का मानना है कि यहां के न्यायालय वाम विचारधारा की ओर झुका हुआ है और “बहुसंख्यक समाज” से जुड़े मुद्दों पर काम करता है। इसके अलावा, वह "बहुसंख्यक समाज" को सही तरह से नहीं प्रतिनिधित्व करता है और यहूदियों के मामलों को सही तरह से नहीं उठाता है, जिससे बहुसंख्यक समाज तरक्की नहीं कर पा रहा है।

नेतन्याहू और उनकी सरकार के मंत्री और नेताओं का मानना है कि पिछली अदालत और न्यायाधीश उसकी सरकार को फिलिस्तीनियों पर मनचाहे कानून बनाने में हस्तक्षेप कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी "हस्तक्षेपवादी" व्यवहार करते हैं। इन सबके अलावा, दक्षिणपंथी नेताओं का मानना है कि न्यायपालिका में “हस्तक्षेपवादी व वामपंथी” विचारधारा की तरफ झुकाव से यहाँ के “बहुसंख्यक समाज” का भरोसा गिर गया है। यहूदियों और इजरायल दोनों के लिए यह बदलाव लाभदायक होगा क्योंकि इससे कानूनी व्यवस्था में विश्वास खोने वाले इजरायली लोग फिर से कानूनी व्यवस्था पर भरोसा करने लगेंगे ।

हाल ही में, दक्षिणपंथी दलों ने इजरायल के अलावा कई लोकतांत्रिक देशों में न्यायपालिका को नियंत्रित करने और उसे राजनीतिकृत करने का प्रयास किया है। पोलैंड, तुर्की और हंगरी में न्यायपालिका को तोड़ने की कोशिश की गई है, जो कुछ हद तक कामयाब हुई है। भारत के कानून मंत्री किरण रिजिजू ने पिछले दिनों न्यायपालिका में सेंध लगाने की कोशिश की थी। यहां प्रश्न यह उठता है कि यह दल लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में आया है, इसे तोड़ना क्यों चाहते हैं? वह जिसे मार डालकर या उसे कमजोर करने का लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं, क्या वह अनंत काल तक जीवित रह सकता है? अगर ऐसा नहीं है, तो वह अपनी आत्महत्या क्यों कर रहे हैं और गरीब और मजलूम जनता का एकमात्र और आखिरी सहारा, लोकतंत्र के इस प्रहरी को और मजबूत करने के बजाय उसे कमजोर क्यों कर रहे हैं?

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