Opinion

ईश्वर की खोज करने से पहले स्वयं को समझें

इंसान की इच्छा हमेशा दूसरों को जानने में अधिक रहती है। हम अक्सर अपने परिवार, मित्र, और समाज के लोगों के बारे में जानने की दिशा में अधिक ध्यान देते हैं। लेकिन, खुद को जानने की न तो उसके पास इच्छा होती है और न ही समय।

ईश्वर की खोज करने से पहले, हमें खुद को समझना जरूरी होता है। यदि हम ईश्वर, सत्य, या किसी और नाम से ‘तुष्टि’ की खोज कर रहे हैं, तो हमें पता होना चाहिए कि वह चीज असल में क्या है, जिसे हम पाना चाहते हैं।

जब हम कहते हैं, ‘मैं स्थायी खुशी की तलाश कर रहा हूं’, तो यह संभव है कि स्थायी सुरक्षा, स्थायी खुशी नाम की कोई चीज ही न हो। हो सकता है कि सत्य पूर्णतया भिन्न हो; और मुझे लगता है कि हम जो देखते हैं, सोचते हैं, प्रतिपादित करते हैं, सत्य उन सबसे पूर्णतया भिन्न है।

परंतु अपने आपको जानने में ही हमारी कोई रुचि नहीं होती, जबकि केवल वही एक आधार है, जिस पर कोई निर्माण संभव है। इससे पहले कि हम कुछ बनाएं, कुछ बदलाव करें, किसी चीज की निंदा करें या उसको नष्ट करें, यह जानना आवश्यक है कि हम क्या हैं।

व्यक्ति जैसे-जैसे अपने सोच-विचार एवं भावों की जटिलता के प्रति सतर्क होता जाएगा, वैसे-वैसे उसकी सजगता केवल अपने प्रति ही नहीं, अपने से जुड़े हुए लोगों के प्रति भी बढ़ती जाएगी।

मुझे लगता है कि यथार्थ या ईश्वर की खोज शुरू करने से पहले, हमें शुरुआत स्वयं को समझने से करनी होगी। मैं उसी व्यक्ति को गंभीर समझता हूं, जिसका पहला सरोकार इसी बात से है, न कि उससे जो किसी विशेष लक्ष्य तक पहुंचने के लिए परेशान है।

स्वयं को जाने बिना, अपनी सोच के तौर-तरीकों को समझे बिना, अपनी संस्कारबद्धता की पृष्ठभूमि को समझे बिना, आप किसी भी चीज की सही-सही परख कैसे कर सकेंगे? यदि हम अपनी पृष्ठभूमि को नहीं जानते हैं, यदि हम यह नहीं जानते हैं कि आपके विचार का तत्व क्या है और उसका स्रोत क्या है, तो निस्संदेह हमारी खोज एकदम व्यर्थ है। हमारे कृत्य का कोई अर्थ नहीं है। हम अमेरिकी हैं या हिंदू या किसी और धर्म को मानने वाले, उस सबका कोई मतलब नहीं है।

जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है? इसे जानने से पहले अपने आपको जानना जरूरी है। यह बड़ा सरल प्रतीत होता है, लेकिन यह अत्यंत दुष्कर है। यह देखने के लिए कि हमारे भीतर विचार-प्रक्रिया कैसे कार्य करती है, व्यक्ति को असाधारण रूप से सतर्क होना होगा। अपने को जानने का अर्थ है, क्रिया-कलाप के दौरान अपना अध्ययन करना, जितना अधिक हम अपने को जानेंगे, उतनी ही अधिक स्पष्टता होगी।

स्वबोध का कोई अंत नहीं है। उसमें हम किसी उपलब्धि या किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते। वह एक अनंत सरिता है। जैसे-जैसे व्यक्ति उसका अध्ययन करता है, जैसे-जैसे उसमें प्रवेश करता जाता है, उसे शांति मिलती जाती है।

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